Motivational hindi Story-1 अंधा घोड़ा
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शहर के नज़दीक बने एक फॉर्म हाउस में दो घोड़े रहते थे। दूर से देखने पर वो दोनों बिल्कुल ठीक दिखते थे, पर पास जाने पर पता चलता था कि उनमे से एक घोड़ा अँधा है।
पर अंधे होने के बावजूद फॉर्म के मालिक ने उसे वहां से निकाला नहीं था। बल्कि उसे और भी अधिक सुरक्षा और आराम के साथ रखा था।
अगर कोई थोडा और ध्यान देता तो उसे ये भी पता चलता कि मालिक ने दूसरे घोड़े के गले में एक घंटी बाँध रखी थी, जिसकी आवाज़ सुनकर अँधा घोड़ा उसके पास पहुंच जाता और उसके पीछे-पीछे बाड़े में घूमता।
घंटी वाला घोड़ा भी अपने अंधे मित्र की परेशानी समझता था, वह बीच-बीच में पीछे मुड़कर देखता और इस बात को सुनिश्चित करता कि कहीं उसका साथी रास्ते से भटक ना जाए।
वह ये भी सुनिश्चित करता कि उसका मित्र सुरक्षित; वापस अपने स्थान पर पहुच जाए, और उसके बाद ही वो अपनी जगह की ओर बढ़ता था।
Moral- दोस्तों! बाड़े के मालिक की तरह ही भगवान हमें बस इसलिए नहीं छोड़ देते कि हमारे अन्दर कोई दोष या कमियां हैं। वो हमारा ख्याल रखते हैं, और हमें जब भी ज़रुरत होती है तो किसी ना किसी को हमारी मदद के लिए भेज देते हैं।
कभी-कभी हम वो अंधे घोड़े होते हैं, जो भगवान द्वारा बांधी गयी घंटी की मदद से अपनी परेशानियों से पार पाते हैं। तो कभी हम अपने गले में बंधी घंटी द्वारा दूसरों को रास्ता दिखाने के काम आते हैं॥
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धर्म का मर्म
एक साधु शिष्यों के साथ कुम्भ के मेले में भ्रमण कर रहे थे। एक स्थान पर उनने एक बाबा को माला फेरते देखा।
लेकिन वह बाबा माला फेरते- फेरते बार- बार आँखें खोलकर देख लेते कि लोगों ने कितना दान दिया है। साधु हँसे व आगे बढ़ गए।
आगे एक पंडित जी भागवत कह रहे थे, पर उनका चेहरा यंत्रवत था। शब्द भी भावों से कोई संगति नहीं खा रहे थे, चेलों की जमात बैठी थी। उन्हें देखकर भी साधु खिल- खिलाकर हँस पड़े।
थोड़ा आगे बढ़ने पर इस मण्डली को एक व्यक्ति रोगी की परिचर्या करता मिला। वह उसके घावों को धोकर मरहम पट्टी कर रहा था।
साथ ही अपनी मधुर वाणी से उसे बार- बार सांत्वना दे रहा था।
साधु कुछ देर उसे देखते रहे, उनकी आँखें छलछला आईं।
आश्रम में लौटते ही शिष्यों ने उनसे पहले दो स्थानों पर हँसने व फिर रोने का कारण पूछा।
वे बोले-‘बेटा पहले दो स्थानों पर तो मात्र आडम्बर था पर भगवान की प्राप्ति के लिए एक ही व्यक्ति आकुल दिखा- वह, जो रोगी की परिचर्या कर रहा था।
उसकी सेवा भावना देखकर मेरा हृदय द्रवित हो उठा और सोचने लगा न जाने कब जनमानस धर्म के सच्चे स्वरूप को समझेगा।’
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बड़ों की बात मानो
एक बहुत घना जंगल था, उसमें पहाड़ थे और शीतल निर्मल जल के झरने बहते थे। जंगल में बहुत- से पशु रहते थे। पर्वत की गुफा में एक शेर- शेरनी और इन के दो छोटे बच्चे रहते थे।
शेर और शेरनी अपने बच्चों को बहुत प्यार करते थे।
जब शेर के बच्चे अपने माँ बाप के साथ जंगल में निकलते तो उन्हें बहुत अच्छा लगता था। लेकिन शेर- शेरनी अपने बच्चों को बहुत कम अपने साथ ले जाते थे।
वे बच्चों को गुफा में छोड़कर वन में अपने भोजन की खोज में चले जाया करते थे।
शेर और शेरनी अपने बच्चों को बार- बार समझाते थे कि वे अकेले गुफा से बाहर भूलकर भी न निकलें। लेकिन बड़े बच्चे को यह बात अच्छी नहीं लगती थी।
एक दिन शेर- शेरनी जंगल में गये थे, बड़े बच्चे ने छोटे से कहा- चलो झरने से पानी पी आएँ और वन में थोड़ा घूमें। हिरनों को डरा देना मुझे बहुत अच्छा लगता है।
छोटे बच्चे ने कहा- ‘पिता जी ने कहा है कि अकेले गुफा से मत निकलना। झरने के पास जाने को बहुत मना किया है।
तुम ठहरो पिताजी या माताजी को आने दो। हम उनके साथ जाकर पानी पीलेंगे।’
बड़े बच्चे ने कहा- ‘मुझे प्यास लगी है। सब पशु तो हम लोगों से डरते ही हैं। फिर डरने की क्या बातहै?’
छोटा बच्चा अकेला जाने को तैयार नहीं हुआ। उसने कहा- ‘मैं तो माँ- बाप की बात मानूँगा। मुझे अकेला जाने में डर लगता है।’ बड़े भाई ने कहा।
‘तुम डरपोक हो, मत जाओ, मैं तो जाता हूँ।’ बड़ा बच्चा गुफा से निकला और झरने के पास गया। उसने पेट भर पानी पिया और तब हिरनों को ढकतेहुए इधर- उधर घूमने लगा।
जंगल में उस दिन कुछ शिकारी आये हुए थे। शिकारियों ने दूर से शेर के बच्चे को अकेले घूमते देखा तो सोचा कि इसे पकड़कर किसी चिड़िया घर में बेच देने से अच्छे रुपये मिलेंगे।
शिकारियों ने शेर के बच्चे को चारों ओर से घेर लिया और एक साथ उस पर टूट पड़े। उन लोगों ने कम्बल डालकर उस बच्चे को पकड़ लिया।
बेचारा शेर का बच्चा क्या करता। वह अभी कुत्ते जितना बड़ा भी नहीं हुआ था। उसे कम्बल में खूब लपेटकर उन लोगों ने रस्सियों से बाँध दिया। वह न तो छटपटा सकता था, न गुर्रा सकता था।
शिकारियों ने इस बच्चे को एक चिड़िया घर को बेच दिया। वहाँ वह एक लोहे के कटघरे में बंद कर दिया गया। वह बहुत दुःखी था।
उसे अपने माँ- बाप की बहुत याद आती थी। बार- बार वह गुर्राताऔर लोहे की छड़ों को नोचता था, लेकिन उसके नोचने से छड़ तो टूट नहीं सकती थी।
जब भी वह शेर का बच्चा किसी छोटे बालक को देखता तो बहुत गुर्राता और उछलता था। यदि कोई उसकी भाषा समझा सकता तो वह उससे अवश्य कहता- ‘तुम अपने माँ- बाप तथा बड़ों की बात अवश्य मानना।
बड़ों की बात न मानने से पीछे पश्चात्ताप करना पड़ता है। मैं बड़ों की बात न मानने से ही यहाँ बंदी हुआ हूँ।’
Moral- सच है- जे सठ निज अभिमान बस, सुनहिं न गुरुजन बैन।
जे जग महँ नित लहहिं दुःख, कबहुँ न पावहिं चैन॥
Story-4 सेवाभावी की कसौटी
स्वामीजी का प्रवचन समाप्त हुआ। अपने प्रवचन में उन्होंने सेवा- धर्म की महत्ता पर विस्तार से प्रकाश डाला और अन्त में यह निवेदन भी किया कि जो इस राह पर चलने के इच्छुक हों, वह मेरे कार्य में सहयोगी हो सकते हैं।
सभा विसर्जन के समय दो व्यक्तियों ने आगे बढ़कर अपने नामलिखाये। स्वामीजी ने उसी समय दूसरे दिन आने का आदेश दिया।
सभा का विसर्जन हो गया।
लोग इधर- उधर बिखर गये। दूसरे दिन सड़क के किनारे एक महिला खड़ी थी, पास में घास का भारी ढेर। किसी राहगीर की प्रतीक्षा कर रही थी कि कोई आये और उसका बोझा उठवा दे।
एक आदमी आया, महिला ने अनुनय- विनय की, पर उसने उपेक्षा की दृष्टि से देखा और बोला- ‘‘अभी मेरे पास समय नहीं है।
मैं बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य को सम्पन्न करने जा रहा हूँ।’’इतना कह वह आगे बढ़ गया। थोड़ी ही दूर पर एक बैलगाड़ी दलदल में फँसी खड़ी थी।
गाड़ीवान् बैलों पर डण्डे बरसा रहा था पर बैल एक कदम भी आगे न बढ़ पा रहे थे। यदि पीछे से कोई गाड़ी के पहिये को धक्का देकर आगे बढ़ा दे तो बैल उसे खींचकर दलदल से बाहर निकाल सकते थे।
गाड़ीवान ने कहा- ‘‘भैया! आज तो मैं मुसीबत में फँस गया हूँ। मेरी थोड़ी सहायता करदो।’’
राहगीर बोला- मैं इससे भी बड़ी सेवा करने स्वामी जी के पास जा रहा हूँ। फिर बिना इस कीचड़ में घुसे, धक्का देना भी सम्भव नहीं, अतः अपने कपड़े कौन खराब करे।
इतना कहकर वह आगे बढ़ गया। और आगे चलने पर उसे एक नेत्रहीन वृद्धा मिली। जो अपनी लकड़ी सड़क पर खटखट कर दयनीय स्वर से कह रही थी,
‘‘कोई है क्या? जो मुझे सड़क के बायीं ओर वाली उस झोंपड़ी तक पहुँचा दे। भगवान् तुम्हारा भला करेगा। बड़ा अहसान होगा।
’’ वह व्यक्ति कुड़कुड़ाया- ‘‘क्षमा करोमाँ! क्यों मेरा सगुन बिगाड़ती हो? तुम शायद नहीं जानती मैं बड़ा आदमी बनने जा रहा हूँ। मुझे जल्दी पहुँचना है।’’
इस तरह सबको दुत्कार कर वह स्वामीजी के पास पहुँचा। स्वामीजी उपासना के लिए बैठने ही वाले थे, उसके आने पर वह रुक गये।
उन्होंने पूछा- क्या तुम वही व्यक्ति हो, जिसने कल की सभा में मेरे निवेदन पर समाज सेवा का व्रत लिया था और महान् बनने की इच्छा व्यक्त की थी।
जी हाँ! बड़ी अच्छी बात है, आप समय पर आ गये। जरा देर बैठिये, मुझे एक अन्य व्यक्ति की भी प्रतीक्षा है, तुम्हारे साथ एक और नाम लिखाया गया है।
जिस व्यक्ति को समय का मूल्य नहीं मालुम, वह अपने जीवन में क्या कर सकता है? उस व्यक्ति ने हँसते हुए कहा। स्वामीजी उसके व्यंग्य को समझ गये थे,
फिर भी वह थोड़ी देर और प्रतीक्षा करना चाहते थे। इतने में ही दूसरा व्यक्ति भी आ गया।
उसके कपड़े कीचड़ में सने हुए थे। साँस फूल रही थी। आते ही प्रणाम कर स्वामी जी से बोला- ‘‘कृपा कर क्षमा करें! मुझे आने में देर हो गई, मैं घर से तो समय पर निकला था, पर रास्ते में एक बोझा उठवाने में,
एक गाड़ीवान् की गाड़ी को कीचड़ से बाहर निकालने में तथा एक नेत्रहीन वृद्धा को उसकी झोंपड़ी तक पहुँचाने में कुछ समय लग गया और पूर्व निर्धारित समय पर आपकी सेवा में उपस्थित न हो सका।’’
स्वामीजी ने मुस्कारते हुए प्रथम आगन्तुक से कहा- दोनों की राह एक ही थी, पर तुम्हें सेवा के जो अवसर मिले, उनकी अवहेलना कर यहाँ चले आये।
तुम अपना निर्णय स्वयं ही कर लो, क्या सेवा कार्यों में मुझे सहयोग प्रदान कर सकोगे?
जिस व्यक्ति ने सेवा के अवसरों को खो दिया हो, वह भला क्या उत्तर देता
Moral- Service is man Service to god
Story-5 ज्ञान की प्यास
उन दिनों महादेव गोविंद रानडे हाई कोर्ट के जज थे। उन्हें भाषाएँ सीखने का बड़ा शौक था। अपने इस शौक के कारण उन्होंने अनेक भाषाएँ सीख ली थीं; किंतु बँगला भाषा अभी तक नहीं सीख पाए थे।
अंत में उन्हें एक उपाय सूझा। उन्होंने एक बंगाली नाई से हजामत बनवानी शुरू कर दी। नाई जितनी देर तक उनकी हजामत बनाता, वे उससे बँगला भाषा सीखते रहते।
रानडे की पत्नी को यह बुरा लगा। उन्होंने अपने पति से कहा, ‘‘आप हाई कोर्ट के जज होकर एक नाई से भाषा सीखते हैं। कोई देखेगा तो क्या इज्जत रह जाएगी ! आपको बँगला सीखनी ही है तो किसी विद्वान से सीखिए।’’
रानडे ने हँसते हुए उत्तर दिया, ‘‘मैं तो ज्ञान का प्यासा हूँ। मुझे जाति-पाँत से क्या लेना-देना ?’’
यह उत्तर सुन पत्नी फिर कुछ न बोलीं।
Moral- ज्ञान ऊँच-नीच की किसी पिटारी में बंद नहीं रहता।
Story -5
“मन का आराम
मतंग ऋषि पशु-पक्षियों के प्रति काफी स्नेह रखते थे। अक्सर वह अध्ययन और ईश्वरोपासना के बाद पक्षियों के साथ खेलने लग जाते थे। गौरैया और कौवे उनके इशारे पर जमीन पर उतर आते और उनके कंधों व हाथों पर बैठ जाते थे।
एक दिन जब वे पक्षियों के बीच चहक रहे थे तभी अनंग ऋषि वहां आए। वह मतंग ऋषि का बहुत सम्मान करते थे।
उन्हें पक्षियों के साथ खेलते देख वह बोले, ‘महाराज, आप इतने बड़े विद्वान होकर बच्चों की तरह चिड़ियों के साथ खेल रहे हैं। इससे आपका मूल्यवान समय नष्ट नहीं होता?’
अनंग ऋषि के इस प्रश्न को सुनकर मतंग ऋषि मुस्करा दिए और उन्होंने अपने एक शिष्य को धनुष लेकर आने के लिए कहा। शिष्य कुछ ही देर में धनुष लेकर आ गया।
मतंग ऋषि ने धनुष लिया और उसकी डोरी ढीली करके रख दी।
अनंग ऋषि हैरानी से मतंग ऋषि को देखकर बोले, ‘आपने धनुष की डोरी ढीली करके क्यों रखी? आप इसके माध्यम से क्या कहना चाहते हैं?’
मतंग ऋषि बोले, ‘मैंने तुम्हारे प्रश्न का जवाब दिया है।
अब मैं इसे विस्तार से बताता हूं। हमारा मन धनुष की तरह है। अगर धनुष पर डोरी हमेशा चढ़ी रहे तो उसकी मजबूती कुछ ही समय में चली जाती है और वह जल्दी टूट जाता है,
किंतु अगर काम पड़ने पर ही इस पर डोरी चढ़ाई जाए तो वह न सिर्फ अधिक समय तक टिकता है,
बल्कि उससे काम भी अच्छे तरीके से होता है। इसी प्रकार काम करने पर ही मन को एकाग्र करना चाहिए। काम के बाद यदि उसे आराम मिलता रहे तो मन और अधिक मजबूत होगा। उसे स्फूर्ति मिलेगी। इससे वह लंबे समय तक स्वस्थ रहता है।’
मतंग ऋषि का जवाब सुनकर अनंग ऋषि हाथ जोड़कर बोले, ‘मैं आपकी बात समझ गया। अब पता चला कि आप क्यों लगातार हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर रहे हैं।’ यह कहकर वह वहां से चले गए।
Moral: We should give relaxe to mind anyhow.
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Story -6
“गुरु गोविंद सिंह जी से जुड़ी प्रेरणादायक कहानी
यह बात उस समय की है जब गुरु गोविंद सिंह जी मुगलों से संघर्ष कर रहे थे। युद्ध में उनके सभी शिष्य अपने-अपने तरीके से सहयोग कर रहे थे।
शाम को युद्ध समाप्त हो जाने के बाद गुरु गोविंद सिंह जी के सभी सेनानी उनके साथ बैठकर उनसे उपदेश ग्रहण करते और आगे की रणनीति पर विचार-विमर्श करते थे।
हर सेनानी को गुरु जी ने निश्चित जिम्मेदारी सौंप रखी थी ताकि वे अपना ध्यान युद्ध पर लगा सकें।
एक दिन उन्होंने अपने एक शिष्य “भाई घनैय्या जी” को युद्ध में सैनिकों को पानी पिलाने का काम सौंपा। वह अपने कंधे पर पानी से भरा मशक लटकाकर सैनिकों को पानी पिलाने के काम में तन-मन से जुट गया। युद्ध करते हुए काफी समय बीत गया।
एक दिन किसी सैनिक ने गुरु गोविंद सिंह जी से शिकायत की कि ‘भाई घनैय्या जी! घायल सिखों के साथ दुश्मन के भी घायल सैनिकों को पानी पिलाता है।
जब उसे मना करते हैं तो वह हमारी बात को स्वीकार नहीं करता और अपने काम में लगा रहता है।’
गुरु जी ने घनैय्या को अपने पास बुलाया और पूछा, “क्यों भाई घनैय्या जी! क्या यह सच है कि तुम घायल सिख सैनिकों के साथ मुगलों के सैनिकों को भी पानी पिलाते हो?”
घनैय्या ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया, “हां, गुरु महाराज! यह पूरी तरह सच है कि मैं शत्रु के सैनिकों को भी पानी पिलाता हूं क्योंकि युद्ध भूमि में पहुंचने पर मुझे शत्रु और मित्र में कोई अंतर नहीं दिखाई देता।
फिर मंत आपकी दी हुई शिक्षा के अनुसार सब में एक ही परमात्मा को देखता हूं। इसलिए मुझे जो भी घायल पड़ा दिखाई देता है, वह चाहे सिख हो या मुगल, मैं उन सभी को समान रूप से पानी पिलाता हूं।”
गुरु जी ने भाई घनैय्या जी, का उत्तर सुनकर उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा, “तूने मेरी दी हुई शिक्षा को सही अर्थों में आत्मसात किया है और उसे सार्थक सिद्ध किया है। तू मेरा सच्चा शिष्य है।”
Moral- दोस्त-दुश्मन, अपना-पराया, इनसे ऊपर उठ कर की गई सेवा ही मानव धर्म कहलाती है।